पात्रता प्रत्येक व्यक्ति को पैदा करनी पड़ती है। यह शिक्षा का और विशेषकर गुरु का पहला कार्य होता है। इसी प्रकार प्रकृति की हर सृष्टि में चार वर्ण कहे गए हैं- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। यह हर प्राणी में, पशु-पक्षी में और कुदरत की हर वस्तु में पाए जाते हैं। जौहरी भी जानते हैं कि हर बहुमूल्य पत्थर भी इन चार वर्णों में पाया जाता है। ज्योतिष में भी इसके प्रमाण देखे जा सकते हैं। इन वर्गों का जाति से कोई संबंध नहीं है। ये तो आत्मा के संस्कारों के गुण हैं। इसी के अनुसार व्यक्ति शिक्षा ग्रहण कर सकता है। इसी प्रकार कोई बुद्धिजीवी होता है और कोई हृदयजीवी। मोटे तौर पर पुरुष बुद्धिजीवी और स्त्रियां हृदयजीवी रूप होते हैं।
दोनों की जीवन-धारा भिन्न होती है। इसलिए इनकी शिक्षा भी भिन्न होनी चाहिए। यदि पुरुष को भाव-प्रधान और स्त्री को बुद्धि-प्रधान शिक्षा दी जाएगी तो दोनों का जीवन अंतर्द्वन्द्व में ही बीत जाएगा। वे समाज या राष्ट्र को कुछ दे ही नहीं पाएंगे। न ही वे अपने प्राकृतिक स्वरूप को कभी पहचान पाएंगे।
हम शिक्षा से समाज और राष्ट्र का निर्माण और विकास करना चाहते हैं तो पहली आवश्यकता है- व्यक्ति का निर्माण। आज की शिक्षा से यह कार्य नहीं हो सकता। व्यक्तिपरक शिक्षा से 'वसुधैव कुटुम्बकम्' कैसे फूटेगा?
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